Thursday, 9 June 2016

रमज़ान

Here’s my first attempt at writing in Hindi. Please ignore the grammatical/spelling errors and Hindu-Urdu amalgamation! (भावनाओं को समझें!)
(For those who have difficulty in reading देवनागरी  script, scroll down for the English one!)

मस्जिदो  के  साईरन  की  आवाज़  अक्सर  शहर  के  शोरगुल  में  खो  जाती  थी | लेकिन  ऊपर  माले  के  भाई-बहन , उस  आवाज़  को  अपनी  आवाज़  में  बदलकर  नीचे  तक  पंहुचा  देते | जिसको  भूख  ज्यादा  लगी  होती  , वह  खुश  होकर  इफ्तार  का  एलान  कर देता| खैर , यह  तो  रही  खेल  और  ठट्ठे  वाली  बात| बाहर  की  सड़क  पर  भोर  से  लेकर  देर  रात  तक  चहल  पहल  रहती  थी , लेकिन  उन  दो  मिंटो के लिए मानो वह भी रुक जाती थी| कुछ पलों के लिए एक सुकून भरा सन्नाटा अनुभव होता था|

इफ्तार का इंतज़ार तो दिन भर रहता था| मगर एक  खजूर  और  एक  गिलास  पानी  पीकर  सब  भूख  छू मंतर | लेकिन   सामने  रखा    दिल  खुश  कर देने  वाला  खाना , वह  भी  तो  खाना  है | जैसे  ही  खजूर  खाया , सीधा  पकोड़े  पर   हाथ  जा  रुकते | अक्सर  डांट  भी  पड़ती  की  फ़ल  क्यों   नहीं  खाते , पानी  भी  ठीक  से  नहीं  पिया , बस  चटपटा  खाकर  सेहत  नहीं  बनेगी | सेहत  तो  उपरवाले के करम से  अच्छी  ही  थी , उनका  कहने  का  मतलब  'अच्छी  सेहतसे  था  शायद | या  फिर  शायद  माँ -बाप  को  बच्चे  हमेशा  कमज़ोर  ही  लगते  हैं | खैर , जो  सोचा  होता  था  की  खाने  पर  लपक  पड़ेंगे , वह  नहीं  होता |  खाने  को  थोड़ा  आराम  देकर  सब  नमाज़  के  लिए  उठते | नमाज़   के  बाद  हसी  ठट्ठे  के  बीच  खाना  पूरा होता |

टीवी  नाम  का  मनोरंजन  रमजानो   में  बंद  रहता  था  तो  एकदूसरे  का  ही  मनोरंजन  बन जाते | कभी  हंसी -मज़ाक , कभी  दीन-धर्म , तो  कभी  पढाई -लिखाई  जिसके  इर्द  गिर्द  सबकी  ज़िन्दगी  घूमती  थी |  मैं , मेरी  बहन , और  समझने  के  लिए  समझ  लीजिए  ऊपर  वाली  बहन |  माँ  और  मामी  की  बातें  तो  बस  क्या  ही  बताएं !  रमजानो में ज्यादातर माँ अल्लाह से बात करती ही मिलती थी | अपने  बच्चों  की  किस्मत  के  लिए  दुआएं   मांगती  हुई |तरावीह  तक  का  वक़्त  कुछ  यूँही गुज़र  जाता | तरावीह पढ़ते हुए साथ वाले को अल्लाह के सामने रोते हुए देखते , तो  दिल भर आता और बिना जताए उसके लिए भी दुआ मांग लेते |   सब  तरावीह  पढ़के  सोने  की तैयारिओं  में  लग  जातेमगर  वो  बस  तययरिां  ही  होती , नींद  तो  देर  रात  तक  नहीं  आती | सब  बात  करते , हसी  मज़ाक  करते,  रात  निकाल  देते | रात के खाने की भूख किसी को नहीं होती, सिवाए मेरे | नींद  तो  तब  आती  थी  जब  सेहरी  के   लिए  उठना  होता  | एक और ख़ास बात, रमजानो में सब साथ सोते थे, एक दूसरे को धक्का देकर अपनी जगह बनाते हुएऊपर से यह मोबाइल नामक चीज़, सबका एक एक कर अलार्म बजता | नींद में दिल करता जिसका भी है हाथ आजाए तो दीवार पर ही दें मारें | लेकिन सबके रहस्यों को छुपाया, मोबाइल तकियों के नीचे सोता था |

 सवेरे  उठकर  सब  अपने  काम  में  लग  जाते . जनाब , चार  बजे  तक  हालत  ख़राब ! असर  की  नमाज़  में  पैर  अक्सर  ऐसे  लड़खड़ाते  जैसे  बस  अभी  गिरे | उसके  बाद   होती  थी  गिनती  शुरू |  इफ्तार  की  तैयारियां| माँ  का  हाथ  बटाना , जो  पापा  और  बहन  ही  करते | हम  तो  मास्टर  शेफ  थे , जब  मन  करता  था  कुछ  हटके  बनाने का  तब  रसोई  में  जातेवर्ना  तो  बस  इधर  उधर  मदद  की  कोशिश , पर  शायद  ही  कोई  मदद  होती | पापा  फ़ल  काटते , बहन  शर्बत  बनाती,  माँ  बाकी  का  नाश्ता  और  मैं ? मैं  खाने  का  इंतज़ार  करती | ऊपर  नीचे  इफ्तार  का  लेन -देन , ताकि  स्वाद  बदलता  रहे | और  फिर  ?

फिर,  बस  वही  साईरन  का  इंतज़ार |

                                                    Picture: Ramazan, 2015. Home. 



Ramazan

Masjido ke siren ki awaaz aksar sheher ke shorgul me kho jaati thi. Lekin upar maale ke bhai-behen, us awaaz ko apni awaaz me badalkar neeche tak pahucha dete. Jisko bhook jyada lagi hoti, veh khush hokar iftar ka elaan kardeta. Khair, yeh to rahi khel aur thatthe wali baat. Bahar ki sadak par bhor se lekar der raat tak chehel pehel rehti thi, lekin un do minto k liye maano veh bhi ruk jaati. Kuch palo k liye ek sukoon bhara sannata anubhav hota tha.

Iftar ka intezaar to din bhar rehta tha. Ek khajoor aur ek glass paani peekar sab bhook chu mantar! Lekin jo saamne rakkha dil khush krdene wala khana, veh bhi to khana hai. Jaise hi khajoor khaya, seedha pakode par hath ja rukte. Aksar daant padti ki phal kyun nahi khaate, paani bhi thik se nahi piya, bas chatpata khakar sehat nahi banegi. Sehat to uparwale ke karam se achi hi thi, unka kehne ka matlab ‘achi sehat’ se tha shayad. Ya fir shayad maa-baap ko bacche hamesha kamzor hi lagte hain. Khair, jo socha hota tha ki khane par lapak padenge, veh nahi hota. Khane ko thoda aaram dekar sab namaaz k liye uthte. Namaz k baad hasi thatthe k beech khana pura hota.

TV naam ka manoranjan aksar ramzaano me band rehta tha to ekdusre ka hi manoranjan karlete. Kabhi hasi-mazak, kabhi deen-dharam, to kabhi padhai-likhai jiske ird gird sabki zindagi ghoomti thi. Mai, meri behen, aur samajhne k liye samajh lijiye upar wali behen. Maa aur maami ki baatein to bas kya hi btaein.  Ramzano me jyadatar maa Allah se baat karti milti thi. Apne baccho ki kismat ke liye duaen maangti. Tarawih tak ka waqt unhi hi guzar jata. Tarawih padhte hue sath wale ko Allah ke saamne rota dekhte, to dil bhar aata aur bina jatae Allah se uske liye dua maang lete. Sab tarawih padhke, sone ki tayyarion me lag jate the. Magar vo bas tayyarian hi hoti thi. Neend daer raat tak nahi aati thi. Sab baat krte, hasi mazaaak karte raat nikaal dete. Raat ke khane ki bhook kisiko nahi hoti thi, siwae mere.  Neend to tab aati thi jab sehri k liye uthna hota tha. Ek aur khaas baat, ramzano me sab saath hi sote the, ek dusre ko dhakka dekar apni jagah banate hue. Upar se yeh mobile naamak cheez, sabka ek ek kar alarm bajta. Neend me dil karta jiska bhi hai hath aajae to deewar par hi den mare. Lekin sabke rehsayo ko chupaya, mobile takiyon k neche sota tha.

Savere uthkar sab apne kaamo me lag jate. Janab, char baje tak haalat kharab! Asar ki namaaz me paer aksar aise ladkhadate jaise bas abhi gire. Uske baad hoti thi ginti shuru. Iftar ki tayyarian. Maa ka haath batana, jo papa aur behen hi krte. Hum to master chef the, jab mann karta tha kuch hatke banane ka tab rasoi me jaate the.  Varna to bas idhar udhar madad ki koshish, par shayad hi koi madad hoti. Papa phal kaat te, behen sherbet banati , Maa baaki ka naashta. Aur main? Mai khane ka intezar karti. Upar-neeche iftar ka len den, taaki swad badalta rahe. Aur fir ?

Fir bas vahi siren ka intezar! 



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